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नमक स्वादानुसार

नमक स्वादानुसार '' इसकी कहानियाँ जहन में उसी तरह आई हैं, जिस तरह देह को बुखार आता है। ये पन्नों पर जैसे-जैसे उतरती गईं, बुखार भी उतरता रहा। ये कहानियाँ ‘बस हो गयी’ हैं, और अब आपके सामने हैं। इसमें से एक-एक कहानी को मैंने सालों-साल, अपने दिमाग़ के एक कोने में, तंदूर पर चढ़ाकर, धीमी आँच पर बड़ी तबियत से पकाया है | ''   निखिल सचान   का यह कहानी संग्रह पढ़ते समय एक बात तो आपकी समझ में आएगी ही  कि लेखक ने  वास्तव में अपना बचपन बड़े ही सलीके से जिया है जिसे उन्होंने हूबहू अपनी इस पुस्तक में मोतियों की भांति चुन -चुन कर इस प्रकार पिरोया है की इसमें हम अपना भी बचपन खोजने लग जाते है  | कहानी एवम्ं कथानक हीरो- कहानी बताती है कि  '' भीड़ पहचान छीन लेती है ''  इसी पह्चान को बनाने हेतु कहानी का नायक लोगो की भीड़ से बाहर निकलने की जद्दोजहद करता नज़र आता है यह कहानी साथ ही समाज की उस संकिर्ण् मानसिकता पर कुठाराघात करती है जो संपन्न या उच्च शिखर पर स्थित व्यक्ति को  '' सात खून माफ होने ''  जैसी सोच रखती हैं | ''  इंसानी कान एक ऐसे